Tuesday, 22 May 2007

अभिवादन ...

एक मित्र कि चेष्ठा का अभिवादन, जिसने मुझे खुद का सामना करना सिखाया ..... एक अधूरी कविता, जिसे मैं, पूरी तरह समर्पित करता हू ...

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वक्त की चाल
के साथ बदलते
देखा क्या - क्या सब
ये तो अब मुझे शायद
पूरी तरह याद नही

थपेड़ो पे
अनुभव का चोगा ड़ाल के
एक झूठी हसी कि ओट से
बस झकता रहा

फिर भी मन के किसी कोने मे
है आत्म-विश्वास
और जीवन
और संघर्ष

पर सबसे ज्यादा मेरा सहारा
तुम्हरा मनोबल है
जो मुझे कभी हारने नही देता

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After a journey of endless quest for peace and happiness which kept pulling me apart, taking me a million places, looking for peace in all thats external- things, people, relations; I complete a full circle and come home to myself. And find that the solution to all questions that I was seeking answers to was already there, right in front of me, at a place I had never bothered to look - within. And whats even more ironical is that it all started when I started running away from myself, living a life of repressal and self-denial.

A journey of a thousand miles ends when you come to terms with yourself.

4 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

सुन्दर रचना है।बधाई।

Udan Tashtari said...

सही है, बढ़िया.

Mohinder56 said...

सुन्दर लिखा है... मेरे एक कविता के एहसास से मिलता जुलता जिसकी दो लाईन थी

दीमक का घर बन कर रह गया हूं
परन्तु टूटा नहीं मैं, अभी बिखरा नहीं मैं

लिखते रहिये

Anonymous said...

Beautiful Creation!!...To have the sense of creative activity is the great happiness and the great proof of being alive...Keep writing.aparna