Tuesday, 9 October 2007

अवसर ...

आंख मीचे
हाथ में
मुट्ठी भर ख़्वाब लिए
स्याह हकिकात से मिलने गया

हाथ खोला
आंखें खोली

देखा तो आसमान में
दूर चांद टिमटिमा रहा था
और मेरे आस पास
उसी के टुकड़े जैसे सैकड़ो जुगनू .....

2 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा भाव हैं, बधाई.

Ashutosh said...

समीर जी ,

हमेशा की तरह इस बार भी आप की सराहना सर्वप्रथम थी . बहुत बहुत धन्यवाद .

बम्बई की लोकल ट्रेन मुझे न सिर्फ़ सहनशीलता सिखा रही है बल्कि बैठने की जगह मिलने पर कवि भी बाना देती है :)


- आशुतोष