Thursday, 15 November 2007
विस्मय
निरंतर घूमता है
अपनी धुरी पे घूमता
हमे अपने साथ
आगे ले बढ़ता है
विरोधाभास है यह
अगर समय भविष्यत है
तो क्यों है प्रारब्ध
तो क्यों है पच्याताप
समय तो यथावत है
समय तो यथार्थ है
क्या कुछ सुना है
क्या कुछ सोचा
मगर आज भी नही जानता
Tuesday, 9 October 2007
अवसर ...
हाथ में
मुट्ठी भर ख़्वाब लिए
स्याह हकिकात से मिलने गया
हाथ खोला
आंखें खोली
देखा तो आसमान में
दूर चांद टिमटिमा रहा था
और मेरे आस पास
उसी के टुकड़े जैसे सैकड़ो जुगनू .....
Monday, 10 September 2007
व्यापन ...
पाषाण सरेखी भाव शून्यता
जब पिघलती है
तब ना उन्माद होता है
ना उदासीनता
तीस बहती है भीतर
आखे मौन रहती है
Saturday, 8 September 2007
संधि विक्षेद ...
एक पूर्णविराम की तरह
जीवन को भागो में विभाजित करता है
और आज
बीते कल और आने वाले कल
के बीच बस एक अल्पविराम है
Wednesday, 29 August 2007
remembering papa
दर्द का एक टुकड़ा
अभी तक मॅन में दबा रक्खा है ....
Its been fourteen years, fourteen long years since I lost my dad, and ever since life has never been the same and never will be... there is a deep sense of vaccum that engulfs a part of me, just like an eclipse, a permanent one in this case... a growing of loss was a part of my formative years... and what was even worse was that I tried to hide this and everything that I felt, never acknowledging my feelings even to myself... I was in general angry and confused with the world around and the one within...
I remember being petrified at the age of seventeen when for the first time I had heard Roger Waters sing in a subdued voice, a song that would haunt me for a very long time, echoing in my ears at nights when I would lye tired and emotionally weared out and could never sleep... still remember the hospital corridor where I sat all night filled with silence outside and my head full of noise, these words playing somewhere at the back of my mind....
Daddy's flown across the ocean
Leaving just a memory
Snapshot in the family album
Daddy what else did you leave for me?
Daddy, what'd'ja leave behind for me?!?
All in all it was just a brick in the wall.
The pain that had been diffused for so long had all of sudden, in one moment crystallised in one moment, in these few lines...
There is a lot else that I could have remembered and said on this day, a lot better sounding words and pleasent memories, but again that would have been one more coverup... a facade...
लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं,
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।
Friday, 17 August 2007
अनाम ...
यादें संजोना
बातो का पुलिंदा
रोज़ खोलना
कुछ मुस्कुराहतो से सिलवट हटाना
और फिर कुछ नया तहाना
भूल कर सब
एक पल को
दोबारा जीना
और आज कि
किस्मत कि मार
को झूठलाना
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एक शेर अक्सर ज़ेहन मे आता है और घर कर जाता है -
मेरे खुशनुमा इरादों मेरा साथ देना
किसी और से नही मेरा खुद से सामना है
जब यथार्थ मन का हौसला पस्त करने लगता है , और जीवन विशमताओ का पहाड़ लगने लगता है , तो एक तलाश शुरू होती है - कारण कि ; और मन कि ही गहराई मे - सबलता कि । यह शायद खुद को बहलाने का भी एक प्रयास है । खुश- फ़हम होना सिर्फ ग़ालिब ने नही, हमने भी सीखा है, महसूस किया है ...
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Tuesday, 22 May 2007
अभिवादन ...
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वक्त की चाल
के साथ बदलते
देखा क्या - क्या सब
ये तो अब मुझे शायद
पूरी तरह याद नही
थपेड़ो पे
अनुभव का चोगा ड़ाल के
एक झूठी हसी कि ओट से
बस झकता रहा
फिर भी मन के किसी कोने मे
है आत्म-विश्वास
और जीवन
और संघर्ष
पर सबसे ज्यादा मेरा सहारा
तुम्हरा मनोबल है
जो मुझे कभी हारने नही देता
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After a journey of endless quest for peace and happiness which kept pulling me apart, taking me a million places, looking for peace in all thats external- things, people, relations; I complete a full circle and come home to myself. And find that the solution to all questions that I was seeking answers to was already there, right in front of me, at a place I had never bothered to look - within. And whats even more ironical is that it all started when I started running away from myself, living a life of repressal and self-denial.
A journey of a thousand miles ends when you come to terms with yourself.
Tuesday, 8 May 2007
खुद से बाते ...
धीरे से कुछ उम्मीदो का वास्ता देते
और फिर चुप-चाप से मायूस हो कर लौट जाते है
कभी मन बेचैन हो उठता है
अपने आप से, और कभी हर उस शै से लड़ता है
जिस्से मुझे सहरा मिलता है
लगता है जैसे
मैं खुद से लड़ रहा हूँ
और शायद थक भी चुका हूँ
चलते रेहने की नसीहत देना
और हसते रेहना
इतना मुशकिल भी नही जीना
फिर क्यूँ मैं हर ख्वाब को झूठलाता हूँ
कदमो के निशान मिटाता हूँ
और अपने मे सिमट जाता हूँ
Monday, 7 May 2007
वेदना ...
आंखें बोझिल थी
आंखें नम
नज़रे धूमिल
मैं जागा हुआ
ख्वाब तलाश रहा था
समय और बिखरे हर पल में
सांस लेना
जीवन की आस में
कमरे में चुन्धियाता अँधेरा
रात भर मुझे जगाये रखा
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कविता लिखते समय प्रायः मॅन में एक वाद - विवाद उठता है , शैली - प्रारूप (style - form) के बीच । एक ओर अपने को व्यक्त करने कि जद्दो-जेहद है है , सब कुछ शब्दो में उतर कर मॅन को हल्का करना , तो दूसरी तरफ एक विवशता है , कैसे कहू वो सब जो मेरे लिए इतना मायने रखता है , क्या शब्दो उस सब को कभी मैं बाँध पाउगा ।
अभिव्यक्ति साधन है या मृग-तृष्णा .......
Saturday, 28 April 2007
आधार
मेरी फिलॉसफी का निचोड़ है कि - मानव स्वयंसिद्ध है - जिसके जीवन का नैतिक उद्देश्य
स्वयं कि खुशी है - जिसका सबसे महान कार्य सृजन है - और जिसके लिये तर्क ही
सर्वोपरि है - आयन रैण्ड
आयन रैण्ड के दर्शन का निचोड़ , उन्ही के शब्दो में । जिसे आज तक मैं अपने जीवन का आदर मानता हू।
जिन लोगो को हिन्दी समझने में कठिनाई आयी हो, उनके लिए मूल उद्धरण यह रहा -
Achievement of your happiness is the only moral purpose of your life, and that happiness, not pain or mindless self-indulgence, is the proof of your moral integrity, since it is the proof and the result of your loyalty to the achievement of your values - Ayn Rand
अंग्रेजी में अनेक बार पढने के बाद भी हिन्दी में इसे पढने कि अनुभूति कुछ अलग ही थी ।
Thursday, 19 April 2007
नेता और नारे ...
- नेतागण के लिए, ये जनसेवा की तत्परता है
- पहले से पदासीन लोगो के लिए, ये मोह और यथार्थ का द्वंद है
- आम आदमी के लिए .................... (आप खुद ही समझदार है)
नारों का हमारे देश के हर बड़े आन्दोलन से गहरा नाता रहा है । इसी संबंध को सम-सामायिक परिपेक्ष में देखता फुरसतिया जी का यह लेख - हर जोर जुलुम की टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है
Tuesday, 17 April 2007
दुविधा
चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!
दूर अभी है', पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,
हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे,
किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।
ये पंक्तिया आज भी मुझे उतना ही अविभूत कर जाती है , जितना आज से सात वर्ष पहले पढ़ के हुआ था ।
Wednesday, 11 April 2007
Sunday, 8 April 2007
विवेचना
शाम का समय मेरे मॅन को हमेशा ही विचलित कर जाता है । कई बार मैंने इसका कारण समझने का प्रयास किया है और पूरी तरह असफल रह हूँ । मेरे अन्दर का अकेलापन और मौन स्पष्ट रुप से प्रकट होता है । और इस सब के बीच मै निःशब्द और निर्भाव......