Thursday, 15 November 2007

विस्मय

समय का चक्र
निरंतर घूमता है

अपनी धुरी पे घूमता
हमे अपने साथ
आगे ले बढ़ता है

विरोधाभास है यह

अगर समय भविष्यत है
तो क्यों है प्रारब्ध
तो क्यों है पच्याताप

समय तो यथावत है
समय तो यथार्थ है

क्या कुछ सुना है
क्या कुछ सोचा
मगर आज भी नही जानता

2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत गहरी सोच..रहस्यवाद की ओर बढते कदम हैं यह। जारी रहे।सुन्दर रचना है।

Ashutosh said...

बाली जी ,

सोच का भटकाव जहा भी ले जाए बस साथ - साथ बहते रहते है . रहस्य तो जीवन स्वयं ही है उसी को समझने की उधेड़बुन है ....

आशुतोष