मेरी अनुभूतियाँ ...
Wednesday, 28 October 2009
साकार - निराकार
शब्द जाल में
जब
मायने पिरोने
को ना बचे
मन तब
खामोशी ओढ़ लेता है
नितांत
निर्विरोध
बस
अपने में सिमट कर
करता है इंतज़ार
सुबह की पौ फटने का
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