Wednesday, 28 October 2009

साकार - निराकार

शब्द जाल में
जब
मायने पिरोने
को ना बचे
मन तब
खामोशी ओढ़ लेता है
नितांत
निर्विरोध
बस
अपने में सिमट कर
करता है इंतज़ार
सुबह की पौ फटने का

5 comments:

pali tripathi said...
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pali tripathi said...

Bahot kam log hindi ko itni sahajta se use kar paate hain..often they turn to hindustani ( i am prone to it). very well written

Ashutosh said...

@ पाली

सही कहा आप ने . प्रायः हम अपने जीवन को इतना जटिल बना देते है की सरलता प्राप्त करना लगभग असंभव सा लगने लगता है . पर यही तो चुनौती है. और ऐसी ही चुनौतिया तो हमे सांस लेते रहने से आगे बढ़ कर जिंदगी जीना सीखाती है :)

- आशुतोष

Puneet said...

क्या खोया क्या पाया जग में... मिलते और बिछड़ते मग में... मुझे किसी से नहीं शिकायत.. यद्यपि छाला गया पग-पग में.. एक दृष्टि बीती पर डाले... यादो की पोटली टटोले .. अपने ही मन से कुछ बोले...अपने ही मन से कुछ बोले..

Ashutosh said...

स्व.रमानाथ अवस्थीजी की कविता ये पंक्तिया अनायास ही याद आ गयी -

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मेरे पास कुछ नहीं है
जो तुमसे मैं छिपाता।
मेरे पंख कट गये हैं
वरना मैं गगन को गाता।

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जीवन बहुत ही कम मौके देता है हिसाब रखने का . और ये सही भी है, अगर हम हर चीज़ का लेखा जोखा रखने लगे, तो सहम ही जायेंगे :)

- आशुतोष