कल रात फिर से
आंखें बोझिल थी
आंखें नम
नज़रे धूमिल
मैं जागा हुआ
ख्वाब तलाश रहा था
समय और बिखरे हर पल में
सांस लेना
जीवन की आस में
कमरे में चुन्धियाता अँधेरा
रात भर मुझे जगाये रखा
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कविता लिखते समय प्रायः मॅन में एक वाद - विवाद उठता है , शैली - प्रारूप (style - form) के बीच । एक ओर अपने को व्यक्त करने कि जद्दो-जेहद है है , सब कुछ शब्दो में उतर कर मॅन को हल्का करना , तो दूसरी तरफ एक विवशता है , कैसे कहू वो सब जो मेरे लिए इतना मायने रखता है , क्या शब्दो उस सब को कभी मैं बाँध पाउगा ।
अभिव्यक्ति साधन है या मृग-तृष्णा .......
3 comments:
स्वागत है तिवारी जी.. भ्रम और शंकाएं हमेशा बुरी नहीं होती.. लगे रहिये.. आनन्द आयेगा..
अभय जी ,
मैं तो आज तक ये समझने में असमर्थ रहा हूँ , पर चलिये आप का कहा मान के आनंद कि तलाश में फिर से निकल पड़ता हूँ :)
- आशुतोष
अभिव्यक्ति को केवल अभिव्यक्ति रेहने दे
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