Monday, 22 February 2010

दो ढीठ ...

ना जिंदगी हमे बदल सकी
और ना हम जिंदगी को

ढीठ है वो
और ढीठ है हम

उसने ना कभी हमारी सुनी
और ना हमने कभी उसकी

दो राहे
अनजान डगर

एक उसने चुनी
और एक हमने

5 comments:

mitsworld said...

yeh kataaksh kyu?

Ashutosh said...

@ Meetu

bas yu hi :)

-Ashutosh

Ramesh Sood said...

Magar Janne kyon
Phir bhi lagta hain
kii hum saath saath hain.....

Ashutosh said...

@ रमेश जी ... आप का comment पढ़ कर नुसरत फ़तेह अली की गाई एक पुरानी ग़ज़ल याद आ गयी है -

"फिरते है कब से दर ब दर
अब इस नगर अब उस नगर
एक दुसरे के हमसफ़र
मैं और मेरी आवारगी .... "

:)

- आशुतोष

Anonymous said...

sundar!