Monday, 8 December 2008

विवश

क्या इश्वर इतना असहाय है कि वो केवल नियति और माथे कि लकीरों में वास करता है

Monday, 22 September 2008

अंत या आगाज़

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उम्मीद की डोर लिए हाथो में
किस्मत के झोको का सामना है
आज उड़ान बहुत ऊँची है
या ख़ुद में ही सिमट जाना है

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नाकामियों का अपना अलग ही एक एहसास होता है . जब एक बड़ी उम्मीद का सहारा छूटता है, तब एक ओर किसी पुराने साथी से जुदा होने का दुःख होता है . एक सूनेपन प्रतीत होता है . मगर साथ ही साथ दूसरी ओर एक नई शुरुआत का आगाज़ होता है . फिर से जीवन चुनौती देना है, एक नए रास्ते पे चलने की.

Thursday, 7 August 2008

देर तक

आईने से मेरा अक्स
मुझे देख कर
पहचाने की कोशिश में लगा रहा
देर तक

कौन हो तुम ?
वो मुझसे
मै उससे
पूछता रहा देर तक

दुनियादारी के रंग
कितने गहरे चढ़ जाते है
दोनों ही
सोचते रहे देर तक

Saturday, 12 July 2008

बेचैनी ...

शाम का रंग
हमेशा गाढा लाल क्यों है
संजीदा
स्याह

और
रात इतनी मौन
बेचैन
बेसबब

सुबह होने को है
सुना है
रौशन
चुन्द्लाती

Friday, 11 July 2008

सावन ...

बारिश का मौसम उमड़ के आता है जब
यादों की बौछार होना तो लाज़मी है

Monday, 5 May 2008

जीवन की आपाधापी

बच्चन जी की इस कविता का भाव रोज़ ही बम्बई की लोकल ट्रेन के धक्को से निकल के आता है ... जब रात के दस बजे भी बैठने को जगह ना मिले और एक घंटे का सफर निढाल खड़े हो कर ही करना पड़ता है... विषमता हमे जीवन का सच्चा स्वरूप दिखाती है, इनमे अगर हम फसे तो चकरघिन्नी की तरह उस्सी जगह नाचते - नाचते धराशायी हो जायेगे और अगर बच के निकल आए तो कवि, लेखक या दर्शनशास्त्री बन जायेगे अवश्य :)


जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

Tuesday, 8 April 2008

आरजू

 
आज रात की परछाई
बहुत लम्बी है
तुम्हारे सिरहाने रखे
ख्वाब सारे जगा दो
नींद आ रही है मुझे
उन्हें ओधा कर
सुला दो

Saturday, 16 February 2008

स्वाद

चाशनी का घोल
बड़े समय से मुह में था
जबान पे उसकी चिपचिपाहट
अपने होने का एहसास कराती रहती थी
स्वाद मगर आज ही कल में चखा है
तुम्हारे हर पल साथ होने का
एहसास अब भी नया है