Monday, 22 September 2008

अंत या आगाज़

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उम्मीद की डोर लिए हाथो में
किस्मत के झोको का सामना है
आज उड़ान बहुत ऊँची है
या ख़ुद में ही सिमट जाना है

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नाकामियों का अपना अलग ही एक एहसास होता है . जब एक बड़ी उम्मीद का सहारा छूटता है, तब एक ओर किसी पुराने साथी से जुदा होने का दुःख होता है . एक सूनेपन प्रतीत होता है . मगर साथ ही साथ दूसरी ओर एक नई शुरुआत का आगाज़ होता है . फिर से जीवन चुनौती देना है, एक नए रास्ते पे चलने की.

Thursday, 7 August 2008

देर तक

आईने से मेरा अक्स
मुझे देख कर
पहचाने की कोशिश में लगा रहा
देर तक

कौन हो तुम ?
वो मुझसे
मै उससे
पूछता रहा देर तक

दुनियादारी के रंग
कितने गहरे चढ़ जाते है
दोनों ही
सोचते रहे देर तक

Saturday, 12 July 2008

बेचैनी ...

शाम का रंग
हमेशा गाढा लाल क्यों है
संजीदा
स्याह

और
रात इतनी मौन
बेचैन
बेसबब

सुबह होने को है
सुना है
रौशन
चुन्द्लाती

Friday, 11 July 2008

सावन ...

बारिश का मौसम उमड़ के आता है जब
यादों की बौछार होना तो लाज़मी है

Monday, 5 May 2008

जीवन की आपाधापी

बच्चन जी की इस कविता का भाव रोज़ ही बम्बई की लोकल ट्रेन के धक्को से निकल के आता है ... जब रात के दस बजे भी बैठने को जगह ना मिले और एक घंटे का सफर निढाल खड़े हो कर ही करना पड़ता है... विषमता हमे जीवन का सच्चा स्वरूप दिखाती है, इनमे अगर हम फसे तो चकरघिन्नी की तरह उस्सी जगह नाचते - नाचते धराशायी हो जायेगे और अगर बच के निकल आए तो कवि, लेखक या दर्शनशास्त्री बन जायेगे अवश्य :)


जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
इस एक और पहलू से होकर निकल चला।
जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

Tuesday, 8 April 2008

आरजू

 
आज रात की परछाई
बहुत लम्बी है
तुम्हारे सिरहाने रखे
ख्वाब सारे जगा दो
नींद आ रही है मुझे
उन्हें ओधा कर
सुला दो

Saturday, 16 February 2008

स्वाद

चाशनी का घोल
बड़े समय से मुह में था
जबान पे उसकी चिपचिपाहट
अपने होने का एहसास कराती रहती थी
स्वाद मगर आज ही कल में चखा है
तुम्हारे हर पल साथ होने का
एहसास अब भी नया है

Thursday, 15 November 2007

विस्मय

समय का चक्र
निरंतर घूमता है

अपनी धुरी पे घूमता
हमे अपने साथ
आगे ले बढ़ता है

विरोधाभास है यह

अगर समय भविष्यत है
तो क्यों है प्रारब्ध
तो क्यों है पच्याताप

समय तो यथावत है
समय तो यथार्थ है

क्या कुछ सुना है
क्या कुछ सोचा
मगर आज भी नही जानता

Tuesday, 9 October 2007

अवसर ...

आंख मीचे
हाथ में
मुट्ठी भर ख़्वाब लिए
स्याह हकिकात से मिलने गया

हाथ खोला
आंखें खोली

देखा तो आसमान में
दूर चांद टिमटिमा रहा था
और मेरे आस पास
उसी के टुकड़े जैसे सैकड़ो जुगनू .....

Monday, 10 September 2007

व्यापन ...

मॅन पे से
पाषाण सरेखी भाव शून्यता
जब पिघलती है
तब ना उन्माद होता है
ना उदासीनता

तीस बहती है भीतर
आखे मौन रहती है

Saturday, 8 September 2007

संधि विक्षेद ...

समय
एक पूर्णविराम की तरह
जीवन को भागो में विभाजित करता है

और आज
बीते कल और आने वाले कल
के बीच बस एक अल्पविराम है

Wednesday, 29 August 2007

remembering papa

दर्द का एक टुकड़ा
अभी तक मॅन में दबा रक्खा है ....


Its been fourteen years, fourteen long years since I lost my dad, and ever since life has never been the same and never will be... there is a deep sense of vaccum that engulfs a part of me, just like an eclipse, a permanent one in this case... a growing of loss was a part of my formative years... and what was even worse was that I tried to hide this and everything that I felt, never acknowledging my feelings even to myself... I was in general angry and confused with the world around and the one within...

I remember being petrified at the age of seventeen when for the first time I had heard Roger Waters sing in a subdued voice, a song that would haunt me for a very long time, echoing in my ears at nights when I would lye tired and emotionally weared out and could never sleep... still remember the hospital corridor where I sat all night filled with silence outside and my head full of noise, these words playing somewhere at the back of my mind....

Daddy's flown across the ocean
Leaving just a memory
Snapshot in the family album
Daddy what else did you leave for me?
Daddy, what'd'ja leave behind for me?!?
All in all it was just a brick in the wall.


The pain that had been diffused for so long had all of sudden, in one moment crystallised in one moment, in these few lines...

There is a lot else that I could have remembered and said on this day, a lot better sounding words and pleasent memories, but again that would have been one more coverup... a facade...

लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं,
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।